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कविता

फूट रहे धानों से

शांति सुमन


फैली धूप शरद की गोबर लीपे आँगन में
धोए गेंहूँ छठ के सुखा रही है दादी माँ।

हलकी हवा उड़ाती जैसे
सूखे कपड़ों को
हरकारे ऊँची कर देते
छोटी खबरों केा
मेले में बैलून पकड़ते भाग रहे बच्चे
दौड़ रही है पीछे आँचल बांधे उसकी माँ।

कभी-कभी अनुकूल न लगता
मौसम पानी का
आसमान जैसे तांबे पर
मौसम चानी का
बतियाता पुरइन से पोखर का जल मटमैला
फूट रहे धानों से आता मीठा सुर धीमा।

घर के खरचे बाबू जी के
वेतन रुके हुए
हड़तालों से भाई के पग
जैसे बंधे हुए
कान अकाने दिन भर रसता देख रही आँसू
भाय, एक तेरे बिन बुझी-बुझी है अपनी माँ।
 


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